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लिखना शुरू करो....!


लिखना शुरू करो। यकीन मानिये इन शब्दों ने अचानक मेरी अंतरात्मा को झंकझोर कर रख दिया। लगा जैसे बरसों की कोई बिछड़ी हुई चीज फिर सामने दिखाई देने लगी हो और जैसे अँधेरे कमरे में अचानक प्रकाश ने अपनी जगह बना ली हो।

यह वाक्य जितना सरल है इसका मतलब उतना ही क्लिष्ट है। कम से कम मेरे लिए इन शब्दों का बड़ा महत्व है। 

कहते हैं एक पत्रकार के लिए लिखना और पढ़ना ही उसका जीवन होता है। वह जितना ज्यादा पढ़ेगा उतना उसको ज्ञान अर्जन होगा और जितना ज्यादा लिखेगा उतना उसकी लेखनी सहज होगी और लोगों को उसका लेख पढ़ने, समझने और उस लेख के साथ खुद को जोड़ने में आसानी होगी।

पर जब कोई किसी पत्रकार को यह कहे की 'लिखना शुरू करो' तो इससे बड़ा व्यंग्य नहीं हो सकता। हालाँकि मेरे लिए इस व्यंग्य ने उस संजीवनी का काम किया है जिसको अपनाने के बाद मुझे उस सुख की फिर से अनुभूति हुई है जिससे पिछले कुछ महीनों से मैं वंचित था। इन शब्दों ने मेरे अंदर लिखने की वो ललक फिर से जगाई है जो लगभग समाप्त हो चुकी थी।

कुछ दिन पहले मुझे ये शब्द सुनने को मिले। मन किया की पूरी पोथी ही लिख डालूं, पर जब लिखने बैठा तो दिमाग शून्य हो गया। क्या लिखूं, क्यों लिखूं, किसके लिए लिखूं? यह ऐसे सवाल थे जिनसे मुझे दो-चार होना पड़ा और अंततः मुझे इस लड़ाई को जीतकर आगे बढ़ना था।

लड़ाई जीतने का मतलब लिखना। तो मैंने लिखना शुरू किया।



दरअसल इस लड़ाई में मुझे एक सीख भी मिली। वो सीख यह थी की जब जीवन आपके सामने कोई प्रश्न रखता है तो उसका उत्तर उसी प्रश्न में छुपा होता है। और जब आप इस प्रश्न के उत्तर की खोज में लगते हैं तो समझिये की आपकी विजय निश्चित हो जाती है। 

ये मैं उपदेश देने के लिए नहीं बोल रहा हूँ बल्कि अपने अनुभव से बता रहा हूँ। जब तक मैंने अपने मन में ये डर पाल रखा था की क्या लिखूं, कैसे लिखूं, क्यों लिखूं तब तक लिखने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। पर एक बार जब लिखने बैठ गया तो फिर उसी प्रश्न से लिखना शुरू किया और यह लेख आपके सामने है।

हो सकता है इसको पढ़ कर आपको ऐसा लगे की लिखना कौन सी ऐसी बड़ी बात है जो इसपर इतना कुछ कहा गया, पर मेरे अंतर्मन से पूछिए तो आपको इसकी महत्ता समझ आएगी और इससे जो सुख मुझे प्राप्त हुआ है वो असीम है, अतुलनीय है।

धन्यवाद् और नमस्कार...!

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