राज्य सभा से बसपा प्रमुख मायावती के इस्तीफे ने देश में हलचल मचा दिया.. कारण बताया कि सदन में उन्हें बोलने नहीं दिया गया.. बकौल मायावती, अगर वो सदन में अपने समाज के लिए आवाज़ नहीं उठा सकती तो उनका सदन में रहने का कोई मतलब नहीं है.. हालाँकि सदन में भाषण के बीच हो-हल्ला कोई नयी बात नहीं है और मायावती जी को तो ये बात और अच्छे से पता होगी क्योकि वो खुद भी सदन में इस तरह के कार्य करती रही हैं..
दरअसल इस्तीफे के दो कारण हो सकते हैं, एक तो ये कि कम सदस्य होने के नाते मायावती जी को राज्य सभा में दूसरा कार्यकाल मिलने पर आशंका है और दूसरा ये कि इस मुद्दे पर विपक्ष को कुछ घंटों के लिए ही सही एक हो कर सरकार को घेरने का एक और मौका मिल गया..
ज्ञात हो कि 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती दलित समाज से आती हैं और उनकी राजनीति भी दलितों के मुद्दे की धुरी पर ही घूमती है.. 1984 में कांशीराम ने बाबा साहब आंबेडकर के पदचिन्हों पर चलने के निश्चय के साथ बसपा का गठन किया.. एक साधारण परिवार में जन्मी और वकालत की पढाई करने वाली मायावती को कांशीराम ने पार्टी के लिए खुद चुना और 2001 में एक विशाल जनसभा में कांशीराम ने मायावती को पार्टी का कमान सँभालने की औपचारिक घोषणा कर दिया..
यहाँ से दलित राजनीति का एक नया अध्याय शुरू हुआ..
1995 में पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी मायावती को पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने 'राजनीति की जादूगर' का नाम दिया.. पार्टी की सफलता के पीछे पूरा श्रेय निर्विरोध रूप से मायावती के नाम गया..
इसके बाद 3 बार मुख्यमंत्री बनी मायावती का कार्यकाल विवादों से ग्रस्त रहा.. अच्छे प्रशासन के नाम पर अधिकारियों को निलंबित कर देना मायावती के शासन का अभिन्न अंग रहा.. ना सिर्फ प्रशासन बल्कि भ्रष्टाचार के मामलों ने भी मायावती को अपने घेरे में लिया..
ताज कॉरिडोर केस, आय से अधिक संपत्ति का मामला, दलित पार्कों के निर्माण में गड़बड़ियां ये कुछ ऐसे मामले थे जिन्होंने मायावती के कद को सीमित करने का काम किया..
2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार में ये मामले अपने चरम पर थे और पार्टी का कद जितना घटा उससे कही ज्यादा मायावती की अपनी छवि पर आघात हुआ.. अपने जन्मदिन पर हज़ार के नोटों की विशाल माला पहनने के मामले ने ऐसा तूल पकड़ा कि प्रदेश के इस एक कद्दावर नेता कि छवि को अप्रत्याशित हानि हुई..
इन सब मामलों के बीच ही दलितों के उत्थान का उद्देश्य कही पीछे छूट गया था.. अब तक पार्टी से भी दलितों का मोहभंग हो चूका था जिसका खामियाजा बसपा को 2012 के विधानसभा चुनाव में भुगतना पड़ा..
यह मोहभंग सिर्फ यही नहीं बल्कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भी दिखा जब पार्टी को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली..
ऐसे में अपनी राजनीतिक साख बचने में जुटी मायावती को वापस दलितों के मुद्दे पर लौटने का एक मौका चाहिए था और राज्य सभा में हुए इस वाकये ने मायावती को एक मौका दे दिया.. वैसे भी सदस्यों की संख्या पर्याप्त ना होने की वजह से दूसरा कार्यकाल नहीं मिल पाने की सूरत में राजनीतिक साख बचाने का इससे अच्छा अवसर नहीं मिल सकता था..
दरअसल इस्तीफे के दो कारण हो सकते हैं, एक तो ये कि कम सदस्य होने के नाते मायावती जी को राज्य सभा में दूसरा कार्यकाल मिलने पर आशंका है और दूसरा ये कि इस मुद्दे पर विपक्ष को कुछ घंटों के लिए ही सही एक हो कर सरकार को घेरने का एक और मौका मिल गया..
ज्ञात हो कि 4 बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती दलित समाज से आती हैं और उनकी राजनीति भी दलितों के मुद्दे की धुरी पर ही घूमती है.. 1984 में कांशीराम ने बाबा साहब आंबेडकर के पदचिन्हों पर चलने के निश्चय के साथ बसपा का गठन किया.. एक साधारण परिवार में जन्मी और वकालत की पढाई करने वाली मायावती को कांशीराम ने पार्टी के लिए खुद चुना और 2001 में एक विशाल जनसभा में कांशीराम ने मायावती को पार्टी का कमान सँभालने की औपचारिक घोषणा कर दिया..
यहाँ से दलित राजनीति का एक नया अध्याय शुरू हुआ..
1995 में पहली बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी मायावती को पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव ने 'राजनीति की जादूगर' का नाम दिया.. पार्टी की सफलता के पीछे पूरा श्रेय निर्विरोध रूप से मायावती के नाम गया..
इसके बाद 3 बार मुख्यमंत्री बनी मायावती का कार्यकाल विवादों से ग्रस्त रहा.. अच्छे प्रशासन के नाम पर अधिकारियों को निलंबित कर देना मायावती के शासन का अभिन्न अंग रहा.. ना सिर्फ प्रशासन बल्कि भ्रष्टाचार के मामलों ने भी मायावती को अपने घेरे में लिया..
ताज कॉरिडोर केस, आय से अधिक संपत्ति का मामला, दलित पार्कों के निर्माण में गड़बड़ियां ये कुछ ऐसे मामले थे जिन्होंने मायावती के कद को सीमित करने का काम किया..
2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार में ये मामले अपने चरम पर थे और पार्टी का कद जितना घटा उससे कही ज्यादा मायावती की अपनी छवि पर आघात हुआ.. अपने जन्मदिन पर हज़ार के नोटों की विशाल माला पहनने के मामले ने ऐसा तूल पकड़ा कि प्रदेश के इस एक कद्दावर नेता कि छवि को अप्रत्याशित हानि हुई..
इन सब मामलों के बीच ही दलितों के उत्थान का उद्देश्य कही पीछे छूट गया था.. अब तक पार्टी से भी दलितों का मोहभंग हो चूका था जिसका खामियाजा बसपा को 2012 के विधानसभा चुनाव में भुगतना पड़ा..
यह मोहभंग सिर्फ यही नहीं बल्कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भी दिखा जब पार्टी को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली..
ऐसे में अपनी राजनीतिक साख बचने में जुटी मायावती को वापस दलितों के मुद्दे पर लौटने का एक मौका चाहिए था और राज्य सभा में हुए इस वाकये ने मायावती को एक मौका दे दिया.. वैसे भी सदस्यों की संख्या पर्याप्त ना होने की वजह से दूसरा कार्यकाल नहीं मिल पाने की सूरत में राजनीतिक साख बचाने का इससे अच्छा अवसर नहीं मिल सकता था..
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