शाम के 6 बजे दफ्तर से घर लौटते समय इस्तीफ़ा और अगली सुबह 10 बजे घर से दफ्तर जाते समय वापस शपथ ग्रहण..कुछ घंटों का राजनीतिक घटनाक्रम और बिहार की राजनीती में भूचाल..कुछ लोगों को यह ग़लतफ़हमी हो सकती है कि नीतीश कुमार का यह फैसला जल्दबाजी में लिया गया मौकापरस्ती का उदाहरण है, परन्तु सच यह है कि यह फैसला और कुछ भी हो सकता है पर जल्दबाजी में लिया गया फैसला नहीं है अपितु बड़ी सूझबूझ के साथ एक चतुर राजनीतिज्ञ द्वारा सही समय पर लिया गया उचित फैसला है..
आइये जानते हैं कि ऐसा क्यों है?
दरअसल बिहार के राजनीती कि धुरी घूमती है जेपी आंदोलन द्वारा आये परिवर्तन से और उसी आंदोलन द्वारा अग्रिम पंक्ति में आये नेताओं के इर्द-गिर्द..इन नेताओं में प्रमुख नाम हैं शरद यादव, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव..इन तीनों नेताओं ने जेपी आंदोलन के साथ अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की..
शरद और नीतीश का एक धड़ा और लालू यादव का दूसरा..दोनों के काम करने की शैली से लेकर विचाधाराओं में भी आकाश-पाताल सा अंतर..ऐसे में बिहार के राजनीती की दिशा बदली जब लालू यादव यहाँ के मुख्यमंत्री बने..जातीय हिंसा, भ्रष्टाचार और लचर कानून व्यवस्था ये लालू के शासनकाल की कुछ प्रमुख और उल्लेखनीय उपलब्धियां हैं जो सर्वविदित हैं..
15 वर्षों के जंगलराज के बाद समय पलटा और भाजपा के समर्थन के साथ नीतीश कुमार बने बिहार के मुख्यमंत्री..'सुशासन' के नारे के साथ इस गठबंधन ने बिहार को शासन और प्रशासन से अवगत कराया..और एक जनप्रिय सरकार बिहार राज्य को मिली..शरद यादव इस बीच केंद्र की राजनीती में अपनी सक्रिय भूमिका निभाते रहे..
पर समय फिर बदला..नरेंद्र मोदी को भाजपा ने 2014 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जो नीतीश और शरद को नागवार गुजरा..कारण यह बताया गया कि मोदी कि अगुवाई वाली भाजपा में अब अटल की तटस्थता और आडवाणी का आदर्श नहीं रहा..हालांकि प्रधानमंत्री पद पर कही ना कही नीतीश कुमार की नज़रें भी थी और ऐसे में मोदी की उम्मीदवारी तय होने से निराशा का भाव आना स्वाभाविक था..
गठबंधन टूट गया..अब दो अलग विचारधाराओं वाले धड़े नीतीश-शरद और लालू यादव एक हुए..ध्यान दें की यह नया गठबंधन किसी विचारधारा पर नहीं बल्कि सिर्फ मोदी विरोध पर बना था..
वैसे इस नए गठबंधन में नीतीश कभी सहज नहीं दिखे, शरद यादव अब तक सक्रीय राजनीती से करीब करीब बाहर हो ही चुके थे..
सरकार बनते ही लालू यादव और उनके परिवार के घोटाले और अपराध बिहार में वापस अपने चरम पर पहुंचने लगा था..तेजस्वी यादव, मिशा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे वही लालू यादव पहले से सीबीआई के घेरे में थे..
अब तक स्वच्छ राजनीतिक जीवन जीने वाले नीतीश कुमार की राजनीती हाशिये पर आ चुकी थी..कई मौकों पर नीतीश की प्रधानमंत्री मोदी के साथ करीबी देश की राजनीती में हलचल मचाती रही..पटना साहिब के 150वें प्रकाशोत्सव के दौरान मोदी और नीतीश की राजनीती सुर्ख़ियों में रही और यह कयास लगाए जाने लगे कि बिहार कि राजनीती में बदलाव की लहर है जो कभी भी मूर्त रूप ले सकती है..
घुटन में जीते हुए नीतीश कुमार एक अवसर की तलाश में थे और तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोपों ने उन्हें यह अवसर दे दिया..करीब 2 महीनों तक समझौते की जुगत की जाती रही लेकिन लालू और उनके बेटे तेजस्वी का बड़बोलापन या यूँ कहें बेशर्मी ने नीतीश कुमार को इस्तीफ़ा देने पर मजबूर कर दिया..
नीतीश कुमार अब छठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद कि शपथ ले चुके हैं, अंतर सिर्फ इतना है कि इस बार नीतीश कि घर वापसी हुई है और राज्य में फिर से जदयू-भाजपा कि सरकार है..सुशील मोदी के उपमुख्यमंत्री की शपथ लेने के साथ ही यह दावा किया गया कि केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने के नाते राज्य का विकास बेहतर तरीके से किया जा सकता है..
यह विकास किस दिशा में जाएगा ये तो आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा परन्तु देश की राजनीती की दिशा में परिवर्तन होना अब निश्चित है और नीतीश कुमार के इस निर्णय से विपक्ष की एकता को एक जबरदस्त झटका लगा है और इसका परिणाम 2019 के आम चुनावों में देखने को मिलेगा..
अंततः यह कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार ने सोच समझ कर एक ऐसा फैसला लिया है जो समय के साथ उचित कहा जा सकता है..एक तो इस निर्णय से बिहार में उनका राजनीतिक कद काफी बढ़ गया है, दूसरे अब वो केंद्र सरकार और देश के करीब 18 राज्यों में शासन करने वाली भाजपा के सहयोगी बन गए हैं..तीसरा और अहम परिणाम यह भी है कि उनके इस कदम से बंटे हुए विपक्ष के सामने 2019 के आम चुनाव में कोई चेहरा नहीं बचा है और अब तक नरेंद्र मोदी की जीत करीब करीब तय मानी जा रही है..
ऐसे में नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक साख बचाते हुए एक ऐसा फैसला लिया है जिससे ना सिर्फ उनके कद में बढ़ोत्तरी हुई है बल्कि देश की राजनीती में अब वो एक ऐसे धड़े के साथ हैं जो आने वाले समय में और मजबूत होता दिख रहा है...
आइये जानते हैं कि ऐसा क्यों है?
दरअसल बिहार के राजनीती कि धुरी घूमती है जेपी आंदोलन द्वारा आये परिवर्तन से और उसी आंदोलन द्वारा अग्रिम पंक्ति में आये नेताओं के इर्द-गिर्द..इन नेताओं में प्रमुख नाम हैं शरद यादव, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव..इन तीनों नेताओं ने जेपी आंदोलन के साथ अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की..
शरद और नीतीश का एक धड़ा और लालू यादव का दूसरा..दोनों के काम करने की शैली से लेकर विचाधाराओं में भी आकाश-पाताल सा अंतर..ऐसे में बिहार के राजनीती की दिशा बदली जब लालू यादव यहाँ के मुख्यमंत्री बने..जातीय हिंसा, भ्रष्टाचार और लचर कानून व्यवस्था ये लालू के शासनकाल की कुछ प्रमुख और उल्लेखनीय उपलब्धियां हैं जो सर्वविदित हैं..
15 वर्षों के जंगलराज के बाद समय पलटा और भाजपा के समर्थन के साथ नीतीश कुमार बने बिहार के मुख्यमंत्री..'सुशासन' के नारे के साथ इस गठबंधन ने बिहार को शासन और प्रशासन से अवगत कराया..और एक जनप्रिय सरकार बिहार राज्य को मिली..शरद यादव इस बीच केंद्र की राजनीती में अपनी सक्रिय भूमिका निभाते रहे..
पर समय फिर बदला..नरेंद्र मोदी को भाजपा ने 2014 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जो नीतीश और शरद को नागवार गुजरा..कारण यह बताया गया कि मोदी कि अगुवाई वाली भाजपा में अब अटल की तटस्थता और आडवाणी का आदर्श नहीं रहा..हालांकि प्रधानमंत्री पद पर कही ना कही नीतीश कुमार की नज़रें भी थी और ऐसे में मोदी की उम्मीदवारी तय होने से निराशा का भाव आना स्वाभाविक था..
गठबंधन टूट गया..अब दो अलग विचारधाराओं वाले धड़े नीतीश-शरद और लालू यादव एक हुए..ध्यान दें की यह नया गठबंधन किसी विचारधारा पर नहीं बल्कि सिर्फ मोदी विरोध पर बना था..
वैसे इस नए गठबंधन में नीतीश कभी सहज नहीं दिखे, शरद यादव अब तक सक्रीय राजनीती से करीब करीब बाहर हो ही चुके थे..
सरकार बनते ही लालू यादव और उनके परिवार के घोटाले और अपराध बिहार में वापस अपने चरम पर पहुंचने लगा था..तेजस्वी यादव, मिशा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे वही लालू यादव पहले से सीबीआई के घेरे में थे..
अब तक स्वच्छ राजनीतिक जीवन जीने वाले नीतीश कुमार की राजनीती हाशिये पर आ चुकी थी..कई मौकों पर नीतीश की प्रधानमंत्री मोदी के साथ करीबी देश की राजनीती में हलचल मचाती रही..पटना साहिब के 150वें प्रकाशोत्सव के दौरान मोदी और नीतीश की राजनीती सुर्ख़ियों में रही और यह कयास लगाए जाने लगे कि बिहार कि राजनीती में बदलाव की लहर है जो कभी भी मूर्त रूप ले सकती है..
घुटन में जीते हुए नीतीश कुमार एक अवसर की तलाश में थे और तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोपों ने उन्हें यह अवसर दे दिया..करीब 2 महीनों तक समझौते की जुगत की जाती रही लेकिन लालू और उनके बेटे तेजस्वी का बड़बोलापन या यूँ कहें बेशर्मी ने नीतीश कुमार को इस्तीफ़ा देने पर मजबूर कर दिया..
नीतीश कुमार अब छठवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद कि शपथ ले चुके हैं, अंतर सिर्फ इतना है कि इस बार नीतीश कि घर वापसी हुई है और राज्य में फिर से जदयू-भाजपा कि सरकार है..सुशील मोदी के उपमुख्यमंत्री की शपथ लेने के साथ ही यह दावा किया गया कि केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने के नाते राज्य का विकास बेहतर तरीके से किया जा सकता है..
यह विकास किस दिशा में जाएगा ये तो आने वाले दिनों में स्पष्ट होगा परन्तु देश की राजनीती की दिशा में परिवर्तन होना अब निश्चित है और नीतीश कुमार के इस निर्णय से विपक्ष की एकता को एक जबरदस्त झटका लगा है और इसका परिणाम 2019 के आम चुनावों में देखने को मिलेगा..
अंततः यह कहा जा सकता है कि नीतीश कुमार ने सोच समझ कर एक ऐसा फैसला लिया है जो समय के साथ उचित कहा जा सकता है..एक तो इस निर्णय से बिहार में उनका राजनीतिक कद काफी बढ़ गया है, दूसरे अब वो केंद्र सरकार और देश के करीब 18 राज्यों में शासन करने वाली भाजपा के सहयोगी बन गए हैं..तीसरा और अहम परिणाम यह भी है कि उनके इस कदम से बंटे हुए विपक्ष के सामने 2019 के आम चुनाव में कोई चेहरा नहीं बचा है और अब तक नरेंद्र मोदी की जीत करीब करीब तय मानी जा रही है..
ऐसे में नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक साख बचाते हुए एक ऐसा फैसला लिया है जिससे ना सिर्फ उनके कद में बढ़ोत्तरी हुई है बल्कि देश की राजनीती में अब वो एक ऐसे धड़े के साथ हैं जो आने वाले समय में और मजबूत होता दिख रहा है...
Comments
Post a Comment