गत दिनों भारतीय राजनीति के दो कद्दावर नेताओं ने इस्तीफ़ा दे कर देश में हलचल मचा दिया..इन इस्तीफों से ना सिर्फ देश की राजनीतिक दिशा पर गहरा असर पड़ेगा बल्कि इन दोनों नेताओं के राजनीतिक अस्तित्व और भविष्य पर भी असर देखने को मिलेगा..
जहाँ बसपा प्रमुख मायावती ने राज्यसभा की अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया वहीं जदयू प्रमुख और राजद के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार ने अपने पद से इस्तीफ़ा दिया..यूँ तो दोनों नेताओं ने किसी न किसी कारणवश इस्तीफ़ा दिया लेकिन इन दो इस्तीफों का विरोधाभास स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है..
आइये जानते हैं कैसे?
राज्यसभा की सांसद और बसपा प्रमुख मायावती ने अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया..दरअसल प्रश्नकाल के दौरान मायावती सहारनपुर हिंसा से जुड़े मुद्दे पर सरकार से प्रश्न कर रही थी..सहारनपुर में हुई हिंसा में कथित तौर पर दलितों पर हमला हुआ था..और दलितों की राजनीति करने वाली मायावती ने इस मुद्दे को सभापति की मौजूदगी में सरकार पर हमला करते हुए प्रश्न किया..
हालाँकि मायावती को जो समय दिया गया था उस समय में उन्होंने अपनी बात रख ली थी और अब समय था सरकार की तरफ से उस प्रश्न के जवाब का..पर मायावती बैठने को तैयार नहीं थी और अपना लिखा हुआ भाषण पूरा करने की ज़िद पर अड़ी थी..ऐसे में सभापति के पास उनका भाषण रोकने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था..इसपर नाराज़ हो कर मायावती ने इस्तीफ़ा दे दिया..
कारण यह बताया गया कि पूरे भाषण के दौरान सरकार के सदस्यों ने व्यवधान उत्पन्न किया और दूसरा यह कि अगर वो अपने समाज कि बात सदन में नहीं रख सकती तो उनके वह रहने का कोई मतलब नहीं बनता..पर असलियत कुछ और ही दिखाई देती है..
सदन में प्रश्नकाल का महत्व तब होता है जब आप अपना प्रश्न पूछें और सरकार को उसका जवाब देने दें, ना कि लिखा हुआ भाषण पढ़ कर अपना राजनीतिक स्वार्थ साधें..जहाँ तक व्यवधान उत्पन्न करने कि बात है तो सदन कि कार्यवाही में प्रश्न और उत्तर ही रिकॉर्ड होता है ना कि विरोध करने वाले सदस्यों का क्रियाकलाप..
अब तक मायावती ने सदन में अपनी बात भी रख ली थी और उससे ज्यादा वो राजनीति कर रही थी..वैसे भी मायावती के पास सदस्यों की संख्या इतनी नहीं है कि उन्हें राज्यसभा में दूसरा कार्यकाल मिल पाता ऐसे में मायावती का इस्तीफ़ा महज एक राजनीतिक ढोंग के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देता है..
अब आते हैं नीतीश कुमार के इस्तीफे पर..लालू यादव के साथ गठबंधन में हमेशा असहज दिखने वाले नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक साख बचाते हुए बिहार में गठबंधन को तोड़ दिया और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे कर भाजपा के साथ सरकार बना ली..दरअसल नीतीश कुमार की राजनीति एक स्वच्छ नेता की छवि के साथ शुरू होती है..15 वर्षों के जंगलराज से छुटकारा दिलाने के वादे के साथ जदयू और भाजपा ने अपनी सरकार बनाई पर पिछले चुनाव में उलटफेर करते हुए नीतीश ने लालू का दामन थामा और भाजपा को विपक्ष में ला खड़ा किया..
पर सरकार में आते ही लालू और उनके परिवार की करतूत नीतीश को और असहज बनाने का काम करने लगी..ना सिर्फ इतना बल्कि अपराध भी राज्य में अपने चरम पर पहुंच रहा था..ऐसे में नीतीश ने इस्तीफ़ा दे कर ना सिर्फ अपनी छवि बचाने का काम किया बल्कि एक ऐसे पार्टी के साथ जाने का फैसला किया है जो भविष्य में विजयी होती दिख रही है..
यहाँ यह कहना गलत होगा की नीतीश ने कोई ऊँची नैतिकता का परिचय दिया है बल्कि एक चतुर राजनेता के तौर पर समय रहते उचित निर्णय लेने का काम किया है..
अब आते हैं विरोधाभास पर..
जहाँ एक ओर जेपी आंदोलन के बाद बिहार की राजनीती में सक्रिय हुए नीतीश कुमार ने निरंतर संघर्ष कर आम जनमानस में अपनी पैठ बनाई और अपनी साफ़ सुथरी छवि के बल पर बिहार के मुख्यमंत्री बने, वही कांशीराम जी द्वारा थाली में परोस कर दी गई बसपा की कमान और पार्टी की दलित राजनीति को धूमिल करने का काम मायावती ने किया है..
जहाँ नीतीश कुमार ने अपनी सरकार को जनप्रिय बनाने का काम किया वही मायावती ने अपनी सरकार में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे कर दलितों के जनसमर्थन को भी खो दिया..इसका परिणाम उन्हें 2012 के विधानसभा चुनाव में मिला जब वो सत्ता से बाहर कर दी गई और 2014 के लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में उन्हें एक भी सीट नहीं मिली..
यह बात भी उल्लेखनीय है कि दोनों नेताओं ने खुद को मोदी विरोधी धड़े की अग्रिम पंक्ति में रखा था और इसी दिशा में अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने का काम किया..परन्तु देश में जिस तरह मोदी लहर लगातार बढ़ती हुई दिखाई दे रही है ऐसे में राजनीतिक रूप से समय पर नीतीश ने सही फैसला लिया..जहाँ तक मायावती का सवाल है तो दलितों के उत्थान के लिए जो भी दिन शेष बचे थे वो सदन में संघर्ष कर सकती थी लेकिन उन्होंने यहाँ भी दलितों के साथ अन्याय ही किया..
अंत में यह कहा जा सकता है कि राजनीति सिर्फ राजनीति होती है और जो राजनीतिक रूप से सत्ता में हैं वो ही सफल कहलाने के हकदार हैं..बाकियों के लिए संघर्ष के दिन हैं और जो संघर्ष नहीं कर सकते उनके इस्तीफे का स्वागत है..
जहाँ बसपा प्रमुख मायावती ने राज्यसभा की अपनी सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया वहीं जदयू प्रमुख और राजद के समर्थन से बिहार के मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार ने अपने पद से इस्तीफ़ा दिया..यूँ तो दोनों नेताओं ने किसी न किसी कारणवश इस्तीफ़ा दिया लेकिन इन दो इस्तीफों का विरोधाभास स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है..
आइये जानते हैं कैसे?
हालाँकि मायावती को जो समय दिया गया था उस समय में उन्होंने अपनी बात रख ली थी और अब समय था सरकार की तरफ से उस प्रश्न के जवाब का..पर मायावती बैठने को तैयार नहीं थी और अपना लिखा हुआ भाषण पूरा करने की ज़िद पर अड़ी थी..ऐसे में सभापति के पास उनका भाषण रोकने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा था..इसपर नाराज़ हो कर मायावती ने इस्तीफ़ा दे दिया..
कारण यह बताया गया कि पूरे भाषण के दौरान सरकार के सदस्यों ने व्यवधान उत्पन्न किया और दूसरा यह कि अगर वो अपने समाज कि बात सदन में नहीं रख सकती तो उनके वह रहने का कोई मतलब नहीं बनता..पर असलियत कुछ और ही दिखाई देती है..
सदन में प्रश्नकाल का महत्व तब होता है जब आप अपना प्रश्न पूछें और सरकार को उसका जवाब देने दें, ना कि लिखा हुआ भाषण पढ़ कर अपना राजनीतिक स्वार्थ साधें..जहाँ तक व्यवधान उत्पन्न करने कि बात है तो सदन कि कार्यवाही में प्रश्न और उत्तर ही रिकॉर्ड होता है ना कि विरोध करने वाले सदस्यों का क्रियाकलाप..
अब तक मायावती ने सदन में अपनी बात भी रख ली थी और उससे ज्यादा वो राजनीति कर रही थी..वैसे भी मायावती के पास सदस्यों की संख्या इतनी नहीं है कि उन्हें राज्यसभा में दूसरा कार्यकाल मिल पाता ऐसे में मायावती का इस्तीफ़ा महज एक राजनीतिक ढोंग के अलावा और कुछ नहीं दिखाई देता है..
अब आते हैं नीतीश कुमार के इस्तीफे पर..लालू यादव के साथ गठबंधन में हमेशा असहज दिखने वाले नीतीश कुमार ने अपनी राजनीतिक साख बचाते हुए बिहार में गठबंधन को तोड़ दिया और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे कर भाजपा के साथ सरकार बना ली..दरअसल नीतीश कुमार की राजनीति एक स्वच्छ नेता की छवि के साथ शुरू होती है..15 वर्षों के जंगलराज से छुटकारा दिलाने के वादे के साथ जदयू और भाजपा ने अपनी सरकार बनाई पर पिछले चुनाव में उलटफेर करते हुए नीतीश ने लालू का दामन थामा और भाजपा को विपक्ष में ला खड़ा किया..
पर सरकार में आते ही लालू और उनके परिवार की करतूत नीतीश को और असहज बनाने का काम करने लगी..ना सिर्फ इतना बल्कि अपराध भी राज्य में अपने चरम पर पहुंच रहा था..ऐसे में नीतीश ने इस्तीफ़ा दे कर ना सिर्फ अपनी छवि बचाने का काम किया बल्कि एक ऐसे पार्टी के साथ जाने का फैसला किया है जो भविष्य में विजयी होती दिख रही है..
यहाँ यह कहना गलत होगा की नीतीश ने कोई ऊँची नैतिकता का परिचय दिया है बल्कि एक चतुर राजनेता के तौर पर समय रहते उचित निर्णय लेने का काम किया है..
अब आते हैं विरोधाभास पर..
जहाँ एक ओर जेपी आंदोलन के बाद बिहार की राजनीती में सक्रिय हुए नीतीश कुमार ने निरंतर संघर्ष कर आम जनमानस में अपनी पैठ बनाई और अपनी साफ़ सुथरी छवि के बल पर बिहार के मुख्यमंत्री बने, वही कांशीराम जी द्वारा थाली में परोस कर दी गई बसपा की कमान और पार्टी की दलित राजनीति को धूमिल करने का काम मायावती ने किया है..
जहाँ नीतीश कुमार ने अपनी सरकार को जनप्रिय बनाने का काम किया वही मायावती ने अपनी सरकार में भ्रष्टाचार को बढ़ावा दे कर दलितों के जनसमर्थन को भी खो दिया..इसका परिणाम उन्हें 2012 के विधानसभा चुनाव में मिला जब वो सत्ता से बाहर कर दी गई और 2014 के लोक सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में उन्हें एक भी सीट नहीं मिली..
यह बात भी उल्लेखनीय है कि दोनों नेताओं ने खुद को मोदी विरोधी धड़े की अग्रिम पंक्ति में रखा था और इसी दिशा में अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने का काम किया..परन्तु देश में जिस तरह मोदी लहर लगातार बढ़ती हुई दिखाई दे रही है ऐसे में राजनीतिक रूप से समय पर नीतीश ने सही फैसला लिया..जहाँ तक मायावती का सवाल है तो दलितों के उत्थान के लिए जो भी दिन शेष बचे थे वो सदन में संघर्ष कर सकती थी लेकिन उन्होंने यहाँ भी दलितों के साथ अन्याय ही किया..
अंत में यह कहा जा सकता है कि राजनीति सिर्फ राजनीति होती है और जो राजनीतिक रूप से सत्ता में हैं वो ही सफल कहलाने के हकदार हैं..बाकियों के लिए संघर्ष के दिन हैं और जो संघर्ष नहीं कर सकते उनके इस्तीफे का स्वागत है..
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