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बनारस की संस्कृति के साथ राजनीतिक दंगल


आप अगर बनारस के किसी भी आम नागरिक से होली के अवसर पर अस्सी क्षेत्र में होने वाले कवि सम्मलेन के बारे में पूछेंगे तो उसकी आँखों में अचानक चमक जाएगी, चेहरे पर हल्की मुस्कान के साथ-साथ उसका दर्द छलक उठेगा और वो बोलेगा कि अब कहाँ रह गया वो सब। पर मैं आपको सशर्त बता दूँ कि ये चर्चा यहाँ समाप्त नहीं होगी। आप पूछें या नहीं वो खुद अतीत के पन्नों में कही खो जाएगा और फिर आपको बताना शुरू करेगा कि वो जमाना ही कुछ और था। भव्य आयोजन हुआ करता था, सांढ़ बनारसी, चकाचक बनारसी और अन्य कवि मंच पर विराजमान होते थे, शहर का कोई गणमान्य अतिथि ऐसा नहीं होता था जो वहां मौजूद होता हो और कविताओं में भाषा की कोई ऐसी मर्यादा नहीं होती थी जिसे कवियों द्वारा लांघा जाता हो। साथ ही वो अपनी बात ख़त्म करेगा यह बोलते हुए कि अब सब ख़त्म हो गया। जितने भी नामचीन कवि थे सबकी मृत्यु हो गई और उसके साथ ही कवि सम्मलेन का भी अंत हो गया। अब सम्मलेन होता तो है लेकिन अब वो आनंद नहीं रहा। अगर बनारसी में कहें- 'होला कवि सम्मलेन लेकिन अब मजा नहीं हौ'

पर ये तो हुई एक आम बनारसी की बात जो अपना मत कुछ इस प्रकार रखेगा। यही बात अगर आप साहित्य अकादमी पुरस्कार के विजेता, काशी का अस्सी किताब के लेखक प्रख्यात साहित्यकार श्री काशीनाथ सिंह जी से पूछें तो उनका वक्तव्य कुछ यूँ होगा कि भाजपा की रथ यात्रा जिसके फलस्वरूप बाबरी मस्जिद को ढहाया गया और उसके बाद के वर्षों में हिंदुत्ववादी ताकतों के बढ़ने की वजह से कवियों को यह डर सताने लगा था कि कविता पाठ के बाद उनके साथ दुर्व्यवहार हो इसलिए अब कवि सम्मलेन बंद हो गया है।



क्या आपको भी वैसा ही धक्का लगा जैसा उनका यह वक्तव्य पढ़ने के बाद मुझे लगा था? दरअसल बनारस का होने के नाते शहर के जो परंपरागत रीति-रिवाज़ थे, जो उस पुराने बनारस का स्वरुप था और जो शहर का मिजाज था उसमे बदलाव मेरे लिए भी बहुत तकलीफ देने वाली बात है। मकर संक्रांति की पतंगबाजी, होली की मस्ती, राम नवमी की धूम, महा शिवरात्रि पर शिव बारात, दशहरा, दिवाली जैसे त्योहारों की रौनक आज शहर में फीकी पड़ती नजर रही है।

कुल्हड़ की चाय के बाद एक बीड़ा पान मुँह में घुला के शाम को घंटों तक अड़ीबाजी करना लोगों की दिनचर्या में शामिल था। और हाँ जिनको नहीं पता उन्हें बता दूँ कि यह अड़ीबाजी समय की बर्बादी नहीं होती थी बल्कि इस दौरान साहित्य से लेकर राजनीति तक की चर्चा होती थी। अगर ज्यादा कुछ न कहें तो आप यह कह सकते हैं कि चुनावों में जीत-हार का फैसला भी इसी अड़ीबाजी के दौरान हो जाया करता था। क्योकि यह आम लोगों की सभा होती थी जहाँ का फैसला सर्वमान्य होता था और शहर का मिजाज भी यही से बनता था। पर अब इस अड़ीबाजी की जगह मॉल के सैर-सपाटे ने ले ली है। तो क्या हम इसको यह कह सकते हैं कि हिंदुत्ववादी ताकतों के उभरने के बाद इन चर्चाओं पर भी रोक लग गई है और इसलिए अब अड़ीबाजी का वह दौर ख़त्म होने को है? अगर साहित्यकार काशीनाथ सिंह जी के शब्दों में कहें तो ऐसा ही है।

'रेहान पर रघु' काशीनाथ सिंह जी की वो रचना है जिसके लिए उन्हें 2011 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसमें बहुत खूबसूरती के साथ काशीनाथ जी ने वैश्वीकरण के साथ बदलते मानवीय रिश्तों को दर्शाया है। पर अगर आप किसी बनारसी से पूछेंगे तो उनकी रचना 'काशी का अस्सी' ही बेहतर कहेगा क्योंकि वह शहर के मिजाज के बहुत करीब है और उसमे एक अपनापन है जो पढ़ने के साथ हर एक व्यक्ति को अपने साथ जोड़ के रखती है। इस पुस्तक के लिए कोई सम्मान न मिलने की बात खुद काशीनाथ सिंह जी को भी खलती है, और उन्हें यह अक्सर बोलते हुए सुना जा सकता है कि बहुत ज्यादा गाली-गलौज होने की वजह से शायद इसे वो मुकाम नहीं मिल पाया जो मिलना चाहिए था।

मैं उनकी बात से शत-प्रतिशत सहमत हूँ। गाली बनारस के आम-बोलचाल में प्रयोग होती है जिसका वहां के रहने वाले बुरा नहीं मानते, पर अगर वह भाषा किसी बहरी के साथ प्रयोग में लाइ जाए तो वह बुरा मान जाता है। यही बात बनारस शहर के बदलते मिजाज पर भी लागू होती है। उस शहर को करीब से जानने वाला यह बताएगा कि आधुनिकीकरण के इस दौर में शहर में बहुत से बदलाव आए हैं, नई पीढ़ी में अब वो पुराने वाले बनारस की बात नहीं रही और यह पीढ़ी पुराने रीत-रिवाज़ों से परे होती जा रही है। पर क्या इसका राजनीतिकरण सही है?

काशी विभिन्न संस्कृतियों के समागम का केंद्र रहा है। यहाँ विभिन्न मतों को साथ लेकर चलने की परंपरा रही है और अर्थपूर्ण वाद-विवाद इस शहर का चलन रहा है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि ज्ञान की गंगा यहीं से शुरू होती है और मोक्षदायिनी गंगा नदी की इस जगह पर विशेष कृपा रही है।
इन सब चीजों के साथ गुरुदेव काशीनाथ जी का वक्तव्य कि संस्कृत भाषा संस्कृति का प्रतीक है और हिंदुत्ववादी ताकतों ने इसे धर्म से जोड़कर इसका स्थान बहुत ही संकुचित कर दिया है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि संस्कृत भारत कि संस्कृति का प्रतीक है, पर इस बात पर भी विचार करना अति आवश्यक है कि इतनी विशाल संस्कृति के बावजूद आज विश्व में कुल 14,000 संस्कृत भाषी ही शेष क्यों बचे हैं। क्यों अब तक विश्व की सबसे प्राचीन भाषा के साथ उदासीनता का व्यव्हार ही किया गया है। अगर नामी विश्वविद्यालयों में उर्दू, तमिल, तेलुगु, फ्रेंच और जर्मन आदि भाषाओं के विभाग हो सकते हैं तो संस्कृत का क्यों नहीं? और ऐसे में जेएनयू जैसे संसथान में अगर संस्कृत भाषा लाने की बात हो रही है तो गुरुदेव इसका समर्थन क्यों नहीं करते? ज्ञान से कैसा बैर?

बदलती संस्कृति के साथ बहुत सी चीजों में बदलाव आना स्वाभाविक है। इसी बदलाव का नतीजा है कि शहर बनारस शायद अब उस मिजाज मे नहीं जीता जिसमे वह शायद दो दशक पहले तक जीता था। इसी बदलती संस्कृति का परिणाम है कि प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा के रंग में भंग डालने के लिए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अंदर छात्र-छात्राओं के बीच छींटाकशी को यौन उत्पीड़न बता कर राजनीति से प्रेरित प्रदर्शन करवाया गया। यात्रा का विरोध हुआ या नहीं, लेकिन शहर को पूरे विश्व स्तर पर बदनामी जरूर झेलना पड़ा।

काशीनाथ जी ने एक लम्बा अरसा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के साथ बिताया है। आप वहां हिंदी विभाग के विभागाध्यक्ष भी रहे। पहले और आज की तुलना में क्या विश्वविद्यालय के अंदर बदलाव नहीं आया है? इस प्रदर्शन का समर्थन करने वाले गुरुदेव क्या यह बोल सकते हैं कि इन चार सालों से पहले कभी किसी लड़की पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की गई थी? हाँ, ऐसा होता है और इसका विरोध स्वाभाविक है, पर राजनीतिक स्तर पर उतर कर ऐसा विरोध जिससे शहर बदनाम हो उसका समर्थन कहाँ तक उचित है?

दरअसल, काशीनाथ जी मोदी विरोध के वह पुरोधा हैं जिन्होंने हर स्तर पर प्रधानमंत्री और अपने सांसद का विरोध किया है। चाहे वो पुरस्कार वापसी हो या अपने लेखों और वक्तव्यों से अपना विरोध जाहिर करना, हर जगह गुरुदेव का स्वर मुखर हो कर देश के सामने आया है। और यह उचित भी है, राजनीतिक रूप से आप किसी का समर्थन या विरोध कर सकते हैं यह स्वाभाविक है और इसका किसी भी नागरिक को पूरा अधिकार है, पर इस विरोध में शहर को बदनाम करना कहाँ तक उचित है?

ये वही शहर है जहाँ की संस्कृति और जहाँ के मिजाज ने आपको जीवन में इतना सम्मान मिला है, यह वही शहर है जो सबसे पुरानी संस्कृति का द्योतक है, यह वही शहर है जहाँ की जीवनशैली को जीने के लिए और इसे करीब से जानने के लिए पूरे विश्व से लोग यहाँ आते हैं। यह वही शहर है जहाँ शिव विराजते हैं जिन्होंने खुद जहर पी कर सबको जीवन दान दिया है और यह वही शहर है जहाँ लोग मृत्यु का भी उत्सव मनाते हैं। ऐसे शहर के प्रति उदासीनता का भाव फैलाना कहाँ तक उचित है?

मैं उसी बनारस शहर का निवासी हूँ और मुझे इस बात का गर्व है। गुरुदेव काशीनाथ जी के सामने मेरा कद बहुत छोटा है। ज्ञान में, अनुभव में और उम्र में। पर जब शहर के बारे में कुछ गलत पढ़ने को मिला तो रहा नहीं गया और कुछ प्रश्न मन में थे जिन्हे मैंने यहाँ रखा। आप में से कोई अगर यह लेख काशीनाथ जी तक पहुंचा दे तो आभारी रहूँगा और साथ ही साथ यह जानने का इच्छुक भी रहूँगा कि इस पर उनकी राय क्या रही।

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