लोकतंत्र
में 'लोक' का महत्व !
लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव है चुनाव। हाल ही में हुए 5 विधानसभा चुनावों में किसी पार्टी की जीत हुई किसी की हार, पर पिछले सात दशकों से दुनिया के इस सबसे लोकतंत्र में अगर लगातार किसी की हार हो रही है तो वह है इस लोकतंत्र का 'लोक'।
राजनीति
के अखाड़े में जीत-हार पार्टियों की राजनीतिक कुशलता का परिणाम होता है, पर आम आदमी को किस तरह हर चुनाव में बरगलाया जाता रहा है इसका उदहारण किसी भी चुनाव में देखने को मिल सकता है।
क्या आज किसी को याद है कि 2013 में जब केंद्र और दिल्ली दोनों जगहों पर कांग्रेस की सरकार थी तो सब्जियों और अन्य खाद्य सामग्रियों के दाम क्या थे? अगर नहीं तो याद करा दूँ, तब प्याज 100 रुपये किलो बिकता था, टमाटर 120 रुपये और दाल का दाम 120-140 रुपये प्रति किलो हुआ करता था। और आज जब लोगों को यही प्याज 40 रुपये, टमाटर 30 रुपये और दाल 65-75 रुपये किलो मिल रही है तो चुनावों में वोटरों को रफाल लड़ाकू विमान के दाम बताकर भटकाया जाता है।
तेल के दाम 90 रुपये प्रति लीटर तक गए पर क्या जनता के रोज़मर्रा के उपयोग की चीजों के दाम बढे? जवाब है नहीं। क्या आपको याद है 2013 में अगर पेट्रोल के दाम में 2 रुपये की भी वृद्धि होती थी तो सब्जियों के दाम 10 रुपये प्रति किलो तक बढ़ जाते थे। ऐसा क्या हो गया है कि अब जनता को इन चीजों से छुटकारा मिलता दिख रहा है।
देश का किसान आज महज एक चुनावी मुद्दा बनकर रह गया है। हर चार साल बाद विपक्ष की पार्टियां किसानों को सड़क पर उतारती हैं और सरकार के खिलाफ माहौल बनाने का अपना स्वार्थ सिद्ध करती हैं। सबसे बड़ी विडम्बना ये कि किसान आंदोलन की मांग सिर्फ कर्जमाफी तक रह गयी है, कोई भी किसान व्यवस्था परिवर्तन के लिए लड़ाई लड़ता नहीं दिखता है। तकनीकी के इस दौर में कृषि वैज्ञानिक और किसान विचारकों की उदासीनता इसी बात से सामने आती है कि कभी भी इन माध्यमों से देश के किसानों की फसल को वैश्विक स्तर पर पहुंचाने का कोई प्रयास नहीं किया गया और किसानों को बिचौलियों के हवाले कर अपनी स्वार्थ सिद्धि की जाती रही है।
युवाओं को रोज़गार, गरीबी हटाओ, बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं, लोगों
के जीवन स्तर में बेहतरी। ये कुछ ऐसे बुनियादी मुद्दे हैं जो एक वोटर की प्राथमिकता
होनी चाहिए और जिसकी कसौटी पर वोटर को चुनाव में अपना मतदान करना चाहिए। पर इस देश
का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि इन मुद्दों के अलावा हर मुद्दे पर चर्चा होती है,
राजनीतिक विश्लेषण होते हैं, समाज को वोट के नाम पर बांटा जाता है और चुनाव में साम,
दाम, दंड, भेद लगाकर वोटरों को बरगलाया जाता है और चुनाव जीते जाते हैं।
प्रश्न यह भी है कि क्या भारत एक देश के तौर पर लोकतंत्र के लिए
तैयार है? फिर भी हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं और यहाँ 'लोक' की शक्ति सर्वोपरि
है।
Sahi baat hai, samay ke saath hum purani baato ko bhool jate hai, agar humhare man me kisi sarkar ke prati kisi ek baat ko leke narajgi hai to hum uske sau acche kamo ko bhool jate hai. Election ka main mudda health, poverty irradication, employment ye sab hona chahiye election k samay aksar ye deka gaya hai ki partiya kisi local burning issue ko uthati hai aur janta usme fas jati hai, Kisano ko bol dia jata hai ke unka karz maaf kar dia jayega to wo ye main mudda bool jate hai, neta ye jante hai ki Hume to turant laabh puhuchane wali hi scheme acchi lagti hi...
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